पंजाब कांग्रेस में हुए सत्ता पलट के बाद हरियाणा में भी सियासी माहौल गरमा गया है। अमरिंदर सिंह का तख्तापलट होने के बाद

भूपेंद्र हुड्डा के बारे में अब तक की सबसे खरी खरी खबर

हुड्डा सिर्फ दिखावा है….

पंजाब कांग्रेस में हुए सत्ता पलट के बाद हरियाणा में भी सियासी माहौल गरमा गया है। अमरिंदर सिंह का तख्तापलट होने के बाद भूपेंद्र हुड्डा के विरोधी हरियाणा में भी वही “अंजाम” दोहराए जाने की बात कर रहे हैं तो दूसरी तरफ भूपेंद्र हुड्डा के समर्थक पंजाब के नए सीएम चन्नी और पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिद्दू की “जोड़ी” की तरह हरियाणा में सैलजा और हुड्डा की जुगलबंदी को सत्ता की “गारंटी” बताते हुए भूपेंद्र हुड्डा के सीएम बनने का “दावा” कर रहे हैं।
ऐसे में भूपेंद्र हुड्डा के भूतकाल और वर्तमान के रिकॉर्ड को “खंगालना” और भविष्य की संभावनाओं में “झांकना” जरूरी हो जाता है।
कई सवाल भूपेंद्र हुड्डा को लेकर जवाब मांग रहे हैं….
-भूपेंद्र हुड्डा और अमरेंद्र सिंह में क्या समानताएं हैं??
-मुख्यमंत्री के 9 साल के कार्यकाल में भूपेंद्र हुड्डा का रिपोर्ट कार्ड क्या रहा??
– भूपेंद्र हुड्डा के जनाधार की असलियत क्या है??
-भूपेंद्र हुड्डा प्रदेश की सियासत में कहां पर खड़े हैं??
– कांग्रेस के अंदरूनी समीकरणों में भूपेंद्र हुड्डा कितने भारी और कितने हल्के हैं??
हरियाणा के जाट वोटों का भूपेंद्र हुड्डा को कितना समर्थन है??
-हरियाणा के गैर जाट वोटरों की भूपेंद्र हुड्डा के बारे में क्या सोच है ??
-भूपेंद्र हुड्डा ने कांग्रेस की मजबूती के लिए क्या किया है??
-दीपेंद्र हुड्डा के युवा विकल्प में कितना दमखम है??

भूपेंद्र हुड्डा और अमरिंदर सिंह…

पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह का मुख्यमंत्री पद से “तख्तापलट” चौंकाने वाला रहा। कैप्टन अमरिंदर सिंह से “छेड़खानी” करने की हिम्मत लंबे समय से कांग्रेस हाईकमान नहीं जुटा पा रहा था और अमरिंदर सिंह प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए बार-बार कांग्रेस हाईकमान को “दबाने” के काम को अंजाम दे रहे थे।
पानी सिर से ऊपर “गुजर” जाने के बाद कांग्रेस हाईकमान को मजबूर होकर कैप्टन अमरिंदर सिंह की “छुट्टी” करनी पड़ी।
हरियाणा कांग्रेस में भी हू-ब-हू पंजाब जैसे ही सियासी हालात बने हुए हैं। हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा कैप्टन अमरिंदर सिंह के नक्शे कदम पर चलते हुए ही अपनी सियासत चला रहे हैं
कैप्टन अमरिंदर सिंह और भूपेंद्र हुड्डा की सियासत में बहुत सारी समानताएं हैं
-कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस हाईकमान की बजाए खुद को “सुपरपावर” समझते थे।
भूपेंद्र हुड्डा भी खुद को कांग्रेस हाईकमान से “ऊपर” समझते हैं।

– अमरिंदर सिंह समर्थक “Amrinder is Congress- Congress is Amrinder”
कहते थे।
इसी तरह हुड्डा के समर्थक भी “Hudda is Congress” Congress is Hudda” कहते हैं।

-कैप्टन अमरिंदर सिंह को नवजोत सिद्धू का प्रदेश अध्यक्ष बनना “गवारा” नहीं था।
इसी तरह भूपेंद्र हुड्डा को भी शैलजा का प्रदेश अध्यक्ष बने रहना “मंजूर” नहीं है।

-अमरिंदर सिंह ने मुख्यमंत्री बनने के बाद तमाम विरोधी नेताओं को “खुड्डे लाइन” लगा दिया।
भूपेंद्र हुड्डा ने भी राव इंद्रजीत सिंह, सैलजा, बीरेंद्र सिंह, किरण चौधरी, अवतार भड़ाना, धर्मबीर सिंह, रमेश कौशिक, जितेंद्र मलिक जैसे मजबूत नेताओं को “हाशिए” पर डाल दिया।

-अमरिंदर सिंह ने पंजाब कांग्रेस के संगठन को अपने “कब्जे” में रखने की हर मुमकिन कोशिश की। नवजोत सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने की अमरिंदर सिंह ने खुलकर “मुखालफत” की।
भूपेंद्र हुड्डा ने भी प्रदेश कांग्रेस संगठन पर कब्जे के लिए पहले अशोक तंवर को “फेल” किया और अब शैलजा के “पीछे” पड़े हुए हैं।

-अमरेंद्र सिंह पार्टी हाईकमान को पंजाब के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने की चेतावनी देते थे।
इसी तरह भूपेंद्र हुड्डा भी हाईकमान के आदेशों को अनदेखा करते आए हैं।

-अमरेंद्र सिंह ने पंजाब कांग्रेस के संगठन को मजबूत नहीं होने दिया इसी तरह भूपेंद्र हुड्डा ने भी 7 साल से हरियाणा में कांग्रेस का संगठन नहीं बनने दिया।

-अमरिंदर सिंह कांग्रेस हाईकमान के हस्तक्षेप पर पार्टी छोड़ने की धमकी देते रहे
भूपेंद्र हुड्डा ने भी अशोक तंवर को नहीं हटाए जाने पर 2019 में रोहतक में परिवर्तन रैली का आयोजन किया था।

– अमरिंदर सिंह कांग्रेस की बजाय सिर्फ अपनी मजबूती के लिए काम करते रहे।
भूपेंद्र हुड्डा भी कांग्रेस को कमजोर करते रहे और अपना जनाधार बढ़ाने की मुहिम में लगे रहे।

-मुख्यमंत्री बनने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस हाईकमान के आदेशों को लगातार अनदेखा करते रहे
भूपेंद्र हुड्डा ने भी सीएम रहते हुए जहां बीरेंद्र सिंह की शपथ को रातों-रात रुकवा दिया। कांग्रेस
हाईकमान के आदेशों के खिलाफ जाकर हुड्डा ने अपने खेमे के नेताओं को राज्यसभा चुनाव में शाही कांड का हिस्सा बनाया। इसके अलावा हाईकमान द्वारा नियुक्त प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर और कुमारी शैलजा के को फेल करने के काम में लगातार जुटे रहे

जब भूपेंद्र हुड्डा पूरी तरह से अमरिंदर सिंह के नक्शे कदम पर चल रहे थे तो अमरिंदर सिंह की तरह उनके अंजाम से इनकार नहीं किया जा सकता है।

हुड्डा ने कांग्रेस का भट्टा बैठाया…

2005 में भूपेंद्र हुड्डा को 67 विधायकों के साथ कांग्रेस हाईकमान ने सत्ता सौंपी थी। 2009 में भूपेंद्र हुड्डा कांग्रेस को बहुमत दिलाने में असफल रहे और 39 विधायकों के साथ जोड़-तोड़ की सरकार बनाई।
2014 में भूपेंद्र हुड्डा के खिलाफ बने भीषण माहौल के कारण कांग्रेस सिर्फ 15 सीटों पर सिमट गई। 15 में से 10 सीटें रोहतक से जयपुर सोनीपत जिले से आई थी।
समालखा से लेकर कालका तक और हथीन से लेकर डबवाली तक भूपेंद्र हुड्डा अपने एक भी समर्थक को नहीं जितवा पाए। किरण चौधरी तोशाम से और रणदीप सुरजेवाला कैथल से अपने बलबूते पर चुनाव जीते। 1987 के बाद कांग्रेस का यह सबसे “खराब” प्रदर्शन था।
-भूपेंद्र हुड्डा सीएम बनने पर खुद को पावरफुल बनाने के अभियान में जुट गए। उन्हें प्रदेश कांग्रेस के दूसरे बड़े नेताओं राव इंद्रजीत सिंह, बीरेंद्र सिंह, कुमारी शैलजा, किरण चौधरी, कैप्टन अजय यादव, धर्मबीर सिंह, रमेश कौशिक और अवतार सिंह भड़ाना को खुड्डे लाइन लगाना शुरू कर दिया।
यह सभी नेता कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे थे। इन सभी नेताओं को 9 साल के शासनकाल में भूपेंद्र हुड्डा ने बार-बार अपमानित करने का काम किया जिसके चलते एक एक दर्जन बड़े नेता कांग्रेस को छोड़ने को मजबूर हुए।
-भूपेंद्र हुड्डा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद बड़े गैर जाट नेताओं को भी हाशिए पर डाल दिया। उन्होंने पार्टी के संगठन और सरकार को इस तरह से अपने शिकंजे में ले लिया कि आज कांग्रेस के पास
-न तो कोई बड़ा ब्राह्मण नेता है
-ना कोई बड़ा बनिया नेता है
-ना कोई बड़ा पंजाबी नेता है
-ना कोई बड़ा गुर्जर देता है
-ना कोई बड़ा राजपूत नेता है
-ना कोई बड़ा बीसी नेता है
-ना कोई ओबीसी नेता है।
इसी कारण इन सारे समुदायों के वोटर कांग्रेसी खफा हो गए और बीजेपी के पाले में चले गए।
भूपेंद्र हुड्डा की “स्वार्थी” सोच के कारण ही कांग्रेस के परंपरागत वोटर उसे छोड़कर बीजेपी के साथ चले गए जिसके कारण कांग्रेस लगातार विधानसभा के दो चुनाव हार गई।
-सत्ता में रहते हुए कांग्रेसी की दुर्गति करने के बाद भूपेंद्र हुड्डा ने हरियाणा कांग्रेस के संगठन को अपने कब्जे में लेने की मुहिम छेड़ दी। अशोक तंवर के फूलचंद मुलाना की तरह “पिछलग्गू” नहीं बनने के कारण भूपेंद्र हुड्डा उनके खिलाफ हो गए और 5 साल तक अशोक तंवर को “फेल” करने में लगे रहे।
हुड्डा समर्थकों ने दिल्ली में अशोक तंवर पर हमला भी किया। इसके बाद अध्यक्ष बनी कुमारी शैलजा के साथ भी भूपेंद्र हुड्डा का “36” का आंकड़ा है और वे हर हाल में उन्हें हटाने के लिए कोशिशें कर रहे हैं।
भूपेंद्र हुड्डा चाहते हैं कि हरियाणा कांग्रेस का संगठन उनके “चंगुल” में रहे और बाकी नेता उनके “मोहताज” बन जाए।

हुड्डा सिर्फ 7 सीटों के नेता

भूपेंद्र हुड्डा के समर्थक उन्हें “सर्वशक्तिमान” ठहराने के प्रयास करते हैं और उनके जनाधार को लेकर लंबी चौड़ी बातें करते रहते हैं लेकिन हकीकत यही है कि भूपेंद्र हुड्डा पूरे हरियाणा की तो छोड़ो पूरे रोहतक, झज्जर और सोनीपत जिलों के नेता भी नहीं हैं।
-सोनीपत में भूपेंद्र हुड्डा की हार और रोहतक में दीपेंद्र हुड्डा की पराजय ने भूपेंद्र हुड्डा के जनाधार की “पोल” खोलने का काम किया।
-जब दोनों बाबू-बेटा चुनाव हार गए तो वह कांग्रेस को सत्ता दिलाने का दावा किस मुंह से कर सकते हैं।
-भूपेंद्र हुड्डा ने पहली बार रोहतक जिले से बाहर चुनाव लड़ा और दीपेंद्र हुड्डा ने पहली बार पिता की सत्ता से बाहर चुनाव लड़ा। दोनों ही जगह पिता-पुत्र को हार से साबित हो गया कि भूपेंद्र हुड्डा घर के शेर भी नहीं हैं।
-लोकसभा चुनाव में भूपेंद्र हुड्डा सिर्फ खरखोदा और बरोदा विधानसभा क्षेत्रों में ही भाजपा प्रत्याशी से लीड हासिल कर पाए। सोनीपत जिले की सोनीपत, गन्नौर, राई और गोहाना सीटों पर वे पिछड़ गए। जींद जिले की तीनों सीटों पर तो भूपेंद्र हुड्डा को बड़े अंतर से हार मिली। जब भूपेंद्र हुड्डा खुद सोनीपत की 4 सीटों पर लीड नहीं ले पाए तो ऐसे में वे अपने बलबूते पर कांग्रेस को जिताने का दावा कैसे कर सकते हैं।
दीपेंद्र हुड्डा को कोसली विधानसभा क्षेत्र से 75000 वोटों से मात मिली। इतनी विशाल हार के कारण यह “साफ” हो गया कि अहीरवाल में भूपेंद्र हुड्डा का कोई “जनाधार” नहीं है। अहीरवाल की एक दर्जन सीटों में से भूपेंद्र हुड्डा अपने बलबूते पर एक सीट भी नहीं जितवा सकते हैं।
– भूपेंद्र हुड्डा के मुख्यमंत्री होते हुए 2014 के चुनाव में रोहतक और झज्जर जिलों की बादली, बहादुरगढ़ और रोहतक सीट पर कांग्रेस चुनाव हार गई। इसी तरह सोनीपत और राई सीटों पर भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।
-2019 के विधानसभा चुनाव में भूपेंद्र हुड्डा की अगुवाई होने के बावजूद कांग्रेस सोनीपत जिले में राई और गुन्नौर की सीटें हार गई। सोनीपत सीट पर भी इनेलो से आए सुरेंद्र पवार के व्यक्तिगत जनाधार के कारण कांग्रेस को जीत मिली। इसी तरह रोहतक में महम सीट पर भूपेंद्र होगा आनंद सिंह दांगी को नहीं जितवा पाए।
2019 के विधानसभा चुनाव में किलोई के अलावा रोहतक, झज्जर और सोनीपत जिलों में कांग्रेस कहीं पर भी 50 फ़ीसदी वोट हासिल नहीं कर पाई। अधिकांश जगह 30 से 40% वोट ही कांग्रेस को मिले यानी इन जिलों में भी 65 फ़ीसदी लोग भूपेंद्र हुड्डा के खिलाफ हैं।
भूपेंद्र हुड्डा के सीएम बनने के बाद कांग्रेस सिर्फ किलोई, झज्जर, बेरी, कलानौर, खरखोदा, बरोदा और गोहाना सीटें ही लगातार जीत पाई है। यानी भूपेंद्र हुड्डा सिर्फ 7 विधानसभा सीटों के ही नेता हैं।
-भूपेंद्र हुड्डा के “थोथे” जनाधार की कड़वी हकीकत यह है कि दो बार से लगातार उनके वार्ड में भाजपा का पार्षद जीता है और रोहतक का मेयर भी भाजपा का है।
-सोचने की बात है कि जो नेता अपने वार्ड में भी पार्टी को नहीं जितवा सकता वह पूरे हरियाणा में कांग्रेस को सत्ता कैसे दिलवा पाएगा??

भूपेंद्र हुड्डा जाटों के एकछत्र नेता नहीं

भूपेंद्र हुड्डा के समर्थक उनके सबसे बड़ा जाट नेता होने का होने का दावा करते हैं लेकिन यह दावा हकीकत से बहुत दूर है।
-भूपेंद्र हुड्डा सीएम बनने के बाद 2009, 2014 और 2019 के चुनावों में कांग्रेस आज तक जाट बहुल सीट जुलाना, हांसी, दादरी, बाढड़ा, लोहारू, नारनौंद, जींद, उचाना, नरवाना और कलायत सीटें नहीं जीत पाई है जिससे साबित होता है कि वह जाटों के सबसे बड़े नेता नहीं हैं।
-2019 के विधानसभा चुनाव में जाट बहुल सीटों पर 11 महीने पहले जेजेपी बनाने वाले दुष्यंत चौटाला भूपेंद्र हुड्डा पर “भारी” पड़े।
– 2009 और 2014 के चुनाव में ओम प्रकाश चौटाला ने रोहतक सोनीपत झज्जर से बाहर की अधिकांश जाट बहुल सीटों पर जीत का “परचम” फहराया।
– चौटाला परिवार में हुए विभाजन और ओम प्रकाश चौटाला के जेल चले जाने के कारण भूपेंद्र हुड्डा जाट वोटरों के सबसे बड़े नेता के तौर पर खुद को देखने लगे थे लेकिन ओम प्रकाश चौटाला की जेल से रिहाई होने के बाद एक बार फिर जाटों का परंपरागत समर्थन इनेलो को मिलने के “आसार” नजर आने लगे हैं।

गैर जाट वोटरों के लिए हुड्डा खलनायक

भूपेंद्र हुड्डा जहां जाट वोटरों का कभी भी एकमुश्त समर्थन हासिल नहीं कर पाए वही जाट आरक्षण आंदोलन के बाद से गैरजाट वोटरों ने भूपेंद्र हुड्डा को “खलनायक” का दर्जा दे दिया हुआ है।
-सोनीपत लोकसभा सीट पर भूपेंद्र हुड्डा की इसीलिए करारी शिकस्त हुई क्योंकि वहां पर गैरजाट वोटरों ने भूपेंद्र हुड्डा के खिलाफ वोट दिए। दीपेंद्र हुड्डा की रोहतक सीट पर हार के पीछे भी गैरजाट वोटरों का नाराज होना था।
-यह सच्चाई है कि भूपेंद्र हुड्डा के नाम पर एक भी गैर जाट समुदाय कांग्रेस को वोट देने को तैयार नहीं है

भूपेंद्र हुड्डा के मजबूत विकल्प

भूपेंद्र हुड्डा के समर्थक बार-बार यह प्रचार करते हैं कि भूपेंद्र हुड्डा का कोई विकल्प नहीं है, जबकि सच्चाई इसके पूरी तरह उलट है…

हरियाणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शैलजा के कद को छोटा बताने वाले हुड्डा समर्थक यह भूल जाते हैं कि शैलजा तो 1992 में ही केंद्र में मंत्री बन गई थी जबकि भूपेंद्र हुड्डा को पहली बार 2005 में मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। यानी हुड्डा से 12 साल पहले ही शैलजा कद्दावर नेता बन गई थी।
प्रदेश अध्यक्ष सैलजा के कारण ही भूपेंद्र हुड्डा को सीएम बनने का “मौका” मिला। कांग्रेस हाईकमान में “मजबूत” रिश्ते के बलबूते पर ही शैलजा ने हुड्डा को सीएम बनाने के लिए पूरी ताकत झौंकी थी लेकिन हुड्डा ने सबसे पहले उन्हीं को “काटने” का काम किया।
अपने दोस्त विनोद शर्मा के जरिए हुड्डा ने अंबाला में ही शैलजा को सियासी तौर पर “कमजोर” करने का काम किया गया।
हुड्डा शैलजा से इसलिए “खार” खाते हैं क्योंकि वह हुड्डा की हां में हां मिलाने की बजाय कांग्रेस को “मजबूत” करने की “सोच” रखती हैं। अगर शैलजा को कांग्रेस हाईकमान ने सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट किया तो 22% दलित वोटरों का “एकमुश्त” समर्थन कांग्रेस को मिलेगा।
इसके अलावा भूपेंद्र हुड्डा के मुख्यमंत्री पद की दौड़ से “बाहर” होने के बाद ब्राह्मण, पंजाबी, गुर्जर, अहिर, बीसी और ओबीसी भी कांग्रेस के पास वापस “लौट” आएंगे जिसके चलते कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाएगी। यह सच्चाई है कि जब तक दलित वोटर कांग्रेस के साथ पहले की तरह लामबंद होकर नहीं खड़ा होगा तब तक कांग्रेस सत्ता में “वापसी” नहीं कर पाएगी। दलित वोटरों को कांग्रेस हाईकमान शैलजा को सीएम प्रोजेक्ट करके “लामबंद” कर सकता है।

हुड्डा समर्थक कुलदीप बिश्नोई के सिर्फ आदमपुर तक सिमटने की बात करते हैं लेकिन पंजाब में नवजोत सिद्धू की तरह हरियाणा में कुलदीप बिश्नोई भी कांग्रेस के लिए “तुरुप का इक्का” साबित होने की क्षमता रखते हैं।
यह हकीकत है कि कांग्रेस को 2005 में 67 सीटें जितवाने में उनके पिता स्वर्गीय भजन लाल का सबसे बड़ा योगदान था। अगर कुलदीप बिश्नोई को कांग्रेसी ने सीएम के तौर पर “प्रोजेक्ट” किया तो एक ही झटके में पंजाबी, ब्राह्मण, अहीर, बीसी व ओबीसी वोटर भाजपा को “छोड़कर” कांग्रेस के साथ लामबंद हो जाएगा जिसके चलते कांग्रेस पूरे बहुमत के साथ सरकार बनाएगी। जितनी सीटें भूपेंद्र हुड्डा के पास रोहतक, झज्जर सोनीपत की हैं इतनी सीटें कुलदीप बिश्नोई हिसार और फतेहबाद से अपने बलबूते पर जितवा कर ले आएंगे।
भूपेंद्र हुड्डा भी कुलदीप विश्नोई को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानते आए हैं। इसलिए 2016 में कांग्रेस में एंट्री के बाद उन्हें प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनने दिया और अब शैलजा के खिलाफ उन्हें “इस्तेमाल” कर रहे हैं। भूपेंद्र हुड्डा यह जानते हैं कि अगर कुलदीप बिश्नोई के हाथ में “कमान” आ गई तो फिर उनके परिवार के हाथ में “दोबारा” सत्ता नहीं आएगी।

हुड्डा के समर्थक कहते हैं कि किरण चौधरी “सिर्फ” तोशाम की नेता रह गई है। किरण चौधरी को इन हालात में एक “साजिश” के तहत भूपेंद्र हुड्डा ने ही “पहुंचाया” है।
भूपेंद्र हुड्डा ने बंसीलाल परिवार के ही रणवीर महिंद्रा और सोमबीर सिंह के जरिए किरण चौधरी की घेराबंदी की। इसके अलावा दादरी और बवानी खेड़ा में भी किरण चौधरी के विरोधियों को भूपेंद्र हुड्डा ने हवा दी। विपरीत हालात में भी किरण चौधरी किसी भी सूरत में भूपेंद्र हुड्डा से कमजोर नेता नहीं हैं। किरण चौधरी पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल की राजनीतिक विरासत की उत्तराधिकारी हैं। बंसीलाल के समर्थक अभी भी पूरे प्रदेश में मौजूद हैं। अगर कांग्रेस ने उनको सीएम प्रोजेक्ट किया तो भूपेंद्र हुड्डा से ज्यादा जाट वोटरों का समर्थन किरण चौधरी के साथ में होगा। किरण चौधरी भी सीएम प्रोजेक्ट होने पर अपने बलबूते पर भूपेंद्र हुड्डा से ज्यादा सीटें कांग्रेस को जितवा सकती हैं।

भूपेंद्र हुड्डा के समर्थक रणदीप सुरजेवाला की कैथल से हार पर खिल्ली उड़ाते हैं लेकिन यह अगर सुरजेवाला को सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया तो यह भी जींद, कैथल और कुरुक्षेत्र की एक दर्जन सीटें कांग्रेस को जितवाने की क्षमता रखते हैं। उनको सीएम प्रोजेक्ट किए जाने के बाद हुड्डा से ज्यादा जाट वोट बैंक कांग्रेस को समर्थन देगा।

रेवाड़ी से 7 बार के विधायक कैप्टन अजय यादव भूपेंद्र हुड्डा की टक्कर के नेता है जितने चुनाव भूपेंद्र हुड्डा ने जीते हैं उतने चुनाव कैप्टन अजय यादव ने भी जीते हैं। कैप्टन अजय यादव को अगर कांग्रेस सीएम प्रोजेक्ट करती है तो अहिरवाल की एक दर्जन सीटें कांग्रेस की झौली ने सीधे आ जाएंगी।

हुड्डा के अलग पार्टी बनाने पर कांग्रेस को होगा बड़ा फायदा
भूपेंद्र हुड्डा बार-बार अलग पार्टी बनाने की “गीदड़ भभकी” देते रहते हैं लेकिन यह सच्चाई है कि अगर उन्होंने अलग पार्टी बनाई तो “आधा दर्जन” सीट जीतना भी उनके लिए मुमकिन नहीं होगा क्योंकि सिर्फ रोहतक, सोनीपत झज्जर के जाट वोटरों के बलबूते पर हुड्डा “दहाई” का आंकड़ा किसी सूरत में हासिल नहीं कर पाएंगे।
अगर भूपेंद्र हुड्डा ने कांग्रेस छोड़ दी तो राव इंद्रजीत, बिरेंद्र सिंह, धर्मबीर, रमेश कौशिक, जितेंद्र मलिक और अवतार भड़ाना जैसे एक दर्जन नेता कांग्रेस में “वापसी” कर जाएंगे। इनकी घर वापसी करते ही कांग्रेस के पक्ष में जबरदस्त माहौल बनेगा और हुड्डा के कारण होने वाला आधा दर्जन सीटों का नुकसान डेढ़ दर्जन सीटों के फायदे के रूप में कांग्रेस को मिलेगा। ग्राउंड रिपोर्ट यह कहती है कि हुड्डा के अलग पार्टी नहीं बनाने पर कांग्रेस को 50-55 सीटें मिलेंगी लेकिन हुड्डा के अलग पार्टी बनाने पर कांग्रेस को 60 से 70 सीटें मिलेंगी।
-इस तरह यह कहना गलत है कि भूपेंद्र हुड्डा का कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस के सभी 5 बड़े नेता भूपेंद्र हुड्डा के बराबर के विकल्प हैं।
इनके अलावा राव इंद्रजीत और बीरेंद्र सिंह भी भूपेंद्र हुड्डा के बराबर की टक्कर के नेता हैं और अगर कांग्रेस में वापसी करने पर इनमें से किसी एक को सीएम प्रोजेक्ट किया जाता है तो भी भूपेंद्र हुड्डा की अगुवाई से “ज्यादा” सीटें जीतकर कांग्रेस सरकार बनाएगी।

दीपेंद्र हुड्डा के युवा विकल्प की अभी हरियाणा में कांग्रेस को जरूरत नहीं है क्योंकि कांग्रेस के पास उनसे ज्यादा अनुभव वाले आधा दर्जन नेता बैठे हैं और उन नेताओं के बलबूते पर कांग्रेस सत्ता हासिल कर सकती है। दीपेंद्र हुड्डा सिर्फ अपने पिता की छत्रछाया में ही सियासत कर रहे हैं। सोनीपत, रोहतक और झज्जर जिलों से बाहर दीपेंद्र का कोई जनाधार नहीं है। जो दीपेंद्र हुड्डा अपनी खुद की लोकसभा सीट नहीं बचा पाए उनसे हरियाणा में सरकार बनाने के करिश्मे की उम्मीद करना बेवकूफी है।

खरी खरी बात यह है कि भूपेंद्र हुड्डा कभी भी जनाधार वाले नेता नहीं रहे। स्वर्गीय बंसीलाल की मेहरबानी के कारण तीन में से दो बार वह देवीलाल को लोकसभा चुनाव में हरा पाए लेकिन देवीलाल के ही सिपाही इंद्र सिंह ने भूपेंद्र हुड्डा को रोहतक लोकसभा चुनाव में “धूल चटाकर” बता दिया था कि वह देवीलाल से बड़े नेता नहीं है।
-2019 के लोकसभा चुनाव में सोनीपत और रोहतक लोकसभा सीटों पर भूपेंद्र हुड्डा और दीपेंद्र हुड्डा की हार ने यह साबित कर दिया कि पुराने रोहतक जिले में भी उनका दबदबा नहीं है।
– भूपेंद्र हुड्डा ने मुख्यमंत्री बनने के बाद कांग्रेस को मजबूत करने की बजाय सिर्फ अपने महिमामंडन का काम किया। सत्ता की मलाई खिलाकर कांग्रेश के प्रति निष्ठा तुड़वाकर अपने साथ नेताओं को एकजुट किया।
-कांग्रेस के झंडे के नीचे जनता की लड़ाई लड़ने की बजाय हुड्डा ने नकली किसान सम्मेलनों और आधी अधूरी जनक्रांति यात्रा के जरिए सिर्फ अपना प्रचार करने का काम किया।
भूपेंद्र हुड्डा कांग्रेस की सरकार नहीं चाहते हैं बल्कि अपने परिवार की सरकार चाहते हैं और अपने बेटे दीपेंद्र हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। उन्हें कुमारी शैलजा का अध्यक्ष पद पर बने गवारा नहीं है।
– भूपेंद्र हुड्डा जाटों के सबसे बड़े नेता नहीं हैं और गैरजाट उन्हें नफरत की नजर से देखते हैं।
इस तरह साबित हो जाता है कि भूपेंद्र हुड्डा में ऐसा कुछ नहीं है कि कांग्रेस का उनके बगैर गुजारा नहीं है और उनके बगैर कांग्रेस सत्ता हासिल नहीं कर सकती है।
असलियत में भूपेंद्र हुड्डा “थोथा” चना है जो बाजै “घना” है।
सारे विश्लेषण से साबित हो जाता है कि भूपेंद्र हुड्डा ….सिर्फ दिखावा…. है

-कुलदीप श्योराण की खरी खरी रिपोर्ट