महाराणा प्रताप के साथी तोमर वंश का बलिदान।

महाराणा प्रताप के साथी तोमर वंश का बलिदान।

जब महाराणा प्रताप ने रणभूमि से प्रस्थान किया, तब लगभग 500 वीरों ने रणभूमि में ही रुकना तय किया और अंतिम श्वास तक लड़ते रहे। राठौड़ शंकरदास व रावत नेतसी सारंगदेवोत बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अब रणभूमि में मेवाड़ की तरफ से लड़ने वालों में केवल तोमर वंश ही शेष रह गया था।

राजा रामशाह तोमर ग्वालियर नरेश विक्रमादित्य के पुत्र थे। अकबर के सेनापति इकबाल खां से पराजित होने के बाद राजा रामशाह तोमर को मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़गढ़ में शरण दी थी। महाराणा उदयसिंह ने राजा रामशाह को वारांदसीर की जागीर भी दी थी। महाराणा उदयसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह राजा रामशाह के पुत्र कुँवर शालिवाहन से करवा दिया था। 1572 ई. में महाराणा प्रताप को राजगद्दी दिलाने में राजा रामशाह का विशेष योगदान रहा था। समकालीन स्रोत से ज्ञात होता है कि राजा रामशाह तोमर व उनके तोमर साथियों के खर्चे हेतु महाराणा प्रताप उनको प्रतिदिन उस ज़माने के 800 रुपए देते थे।

राजा रामशाह तोमर ने हल्दीघाटी युद्ध से पहले जब यह प्रस्ताव रखा था कि हमें छापामार लड़ाई ही लड़नी चाहिए, तब मेवाड़ के अन्य सामन्तों ने उन पर तंज कसे थे कि राजा रामशाह तो अब वृद्ध हो गए हैं फिर भी जीने की इच्छा रखते हैं। बहरहाल हल्दीघाटी के इस रणक्षेत्र में राजा रामशाह तोमर ने सिद्ध कर दिया कि जब बात मातृभूमि व शरण देने वालों के सम्मान पर आ जाती है, तो देह अंतिम श्वास तक लड़ती है।

हल्दीघाटी युद्ध में तोमर वंश का बलिदान :- ग्वालियर के राजा रामशाह तोमर ने अपने 3 पुत्रों कुंवर शालिवाहन, कुंवर भान, कुंवर प्रताप व एक पौत्र भंवर धर्मागत व 300 तोमर साथियों के साथ युद्ध में भाग लिया और सभी वीरगति को प्राप्त हुए। हल्दीघाटी युद्ध में तोमर वंश अन्त तक टिका रहा। राजा रामशाह तोमर की आयु इस समय अवश्य ही 60 वर्ष से अधिक रही होगी, क्योंकि इनके पिता विक्रमादित्य ने 1526 ई. में पानीपत की लड़ाई में प्राण त्यागे थे।

राजा रामशाह तोमर आमेर के जगन्नाथ कछवाहा के साथ मुकाबले में वीरगति को प्राप्त हुए थे। कुँवर प्रताप तोमर प्रसिद्ध रामप्रसाद हाथी पर बैठकर लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। महाराणा प्रताप के बहनोई कुंवर शालिवाहन तोमर महाभारत के अभिमन्यु की तरह लड़ते हुए सबसे अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए।

प्रत्यक्षदर्शी मुगल लेखक अब्दुल कादिर बंदायूनी लिखता है कि यहाँ राजा रामशाह तोमर ने जिस तरह अपना जज्बा दिखाया, उसको लिख पाना मेरी कलम के बस की बात नहीं। रामशाह अपने बेटे शालिवाहन समेत बहादुरी से लड़ता हुआ दोजख में गया। उसके खानदान का एक भी बहादुर मर्द नहीं बचा। जो इस्लाम के नज़रिए से एकदम कूड़ा-करकट था, उससे निजात मिली।

खमनौर स्थित रणक्षेत्र रक्त तलाई में महाराणा प्रताप के पौत्र महाराणा कर्णसिंह ने 1620 ई. से 1628 ई. के मध्य वीर शालिवाहन तोमर की छतरी बनवाई। महाराणा कर्णसिंह ने उक्त स्थान एक शिलालेख खुदवाया, जिस पर लिखा था कि यह ग्वालियर के राजा रामशाह के पुत्र शालिवाहन की छतरी है। यह शिलालेख देवनागरी लिपि व मेवाड़ी भाषा में है। इस छतरी के सूत्रधार का नाम मदीजत था, जिसने इस छतरी का निर्माण किया।

इस छतरी के चारों ओर विशाल समतल भूमि बनास नदी के किनारे तक फैली है। छतरी पर लगवाया गया शिलालेख बाद में उदयपुर संग्रहालय में रखवा दिया गया। यह छतरी तत्कालीन स्थापत्य की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। सम्भव है कि राजा रामशाह तोमर के अन्य 2 पुत्रों की समाधियां भी आसपास कहीं बनवाई गई हों, जो कि समय के साथ विलुप्त होती गई।

महाराणा कर्णसिंह ने इस छतरी का निर्माण कराकर ग्वालियर नरेश की महत्वपूर्ण सहायता के प्रति आभार प्रदर्शित किया था। यह मेवाड़ और ग्वालियर के प्राचीन राजघरानों को एक सूत्र में पिरोने वाला अटूट धागा है। शालिवाहन जी की छतरी के ठीक पास में एक और छतरी है, जिस पर कोई नाम अंकित नहीं है। बहुत सम्भव है कि यह छतरी राजा रामशाह तोमर की हो।

ग्रंथ राणा रासो में लिखा है कि राजाओं में अनुपम, श्रेष्ठ बुद्धि शक्ति वाला, राजाओं को सहारा देने वाला, पांडव वंशी, ग्वालियर का स्वामी जो रण में अचल रहने वाला था। रुद्रस्वरूपी पांडु वंशज तंवर क्षत्रिय जो ग्वालियर का स्वामी एवं नवें खंड का शिरोमणि है, उसके गुणों का विस्तार इतना है कि उनके वर्णन करने का सामर्थ्य शेषनाग या व्यास में ही ही सकता है।

ग्रंथ राणा रासो में आगे लिखा है कि सुना गया है कि सुग्रीव ने दूसरों के अर्थ प्राण नहीं दिए। जामवंत, नल, नील आदि कई वीरों ने कई युद्ध रचे और विभीषण राम का संसार प्रसिद्ध सेवक बना, किंतु किसी ने भी स्वामी के अर्थ रणभूमि में मस्तक नहीं दिया। यही बात देव-दानव, नर-नाग तथा तीनों लोकों के कई चराचर में भी देखी जाती है, किंतु पांडव वंशी रामशाह को धन्य है, जिसने अपने पुत्र सहित खुमाण पद राणा प्रताप के निमित्त युद्ध किया और मस्तक दिया। शालिवाहन की ख्याति त्रिभुवन में व्याप्त है। वह दिल्लीश्वर शाह के लिए एक रोग के समान था। शालिवाहन के अपार गुण दसों दिशाओं में प्रसिद्ध थे। वह अद्भुत एवं श्रेष्ठ वीर था। उस वीर ने अपने यश का साक्षी समस्त संसार को बना लिया था। अकबर ने भी उसकी वीरता की बात सुनकर वाह वाह कही थी